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शु॒भ्रो वः॒ शुष्मः॒ क्रुध्मी॒ मनां॑सि॒ धुनि॒र्मुनि॑रिव॒ शर्ध॑स्य धृ॒ष्णोः ॥८॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

śubhro vaḥ śuṣmaḥ krudhmī manāṁsi dhunir munir iva śardhasya dhṛṣṇoḥ ||

पद पाठ

शु॒भ्रः। वः॒। शुष्मः॑। क्रुध्मी॑। मनां॑सि। धुनिः॑। मुनिः॑ऽइव। शर्ध॑स्य। धृ॒ष्णोः ॥८॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:56» मन्त्र:8 | अष्टक:5» अध्याय:4» वर्ग:23» मन्त्र:8 | मण्डल:7» अनुवाक:4» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर गृहस्थ कौन काम करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे गृहस्थो ! (वः) तुम्हारा धार्मिक जनों में (शुभ्रः) प्रशंसनीय (शुष्मः) बलयुक्त देह हो, दुष्टों में (क्रुध्मी) क्रोधशील (मनांसि) मन हों (मुनिरिव) मननशील विद्वान् के समान (शर्धस्य) बलयुक्त बली (धृष्णोः) दृढ़ के (धुनिः) चेष्टा करने के समान वाणी हो ॥८॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जो गृहस्थ जन श्रेष्ठों के साथ मिलाप और दुष्टों के साथ अलग होना रखते हैं, वे बहुत बल पाते हैं ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्गृहस्थः किं कर्म कुर्यादित्याह ॥

अन्वय:

हे गृहस्था ! वो युष्माकं धार्मिकेषु शुभ्रः शुष्मोऽस्तु दुष्टेषु क्रुध्मी मनांसि सन्तु मुनिरिव शर्धस्य धृष्णोर्धुनिरिव वागस्तु ॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (शुभ्रः) शुद्धः प्रशंसनीयः (वः) युष्माकम् (शुष्मः) बलयुक्तो देहः (क्रुध्मी) क्रोधशीलानि (मनांसि) अन्तःकरणानि (धुनिः) कम्पनं चेष्टाकरणम् (मुनिरिव) यथा मननशीलो विद्वांस्तथा (शर्धस्य) बलयुक्तस्य (धृष्णोः) दृढस्य ॥८॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। ये गृहस्थाः श्रेष्ठैस्सह सन्धिं दुष्टैस्सह पृथग्भावं रक्षन्ति ते बहुबलं लभन्ते ॥८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे गृहस्थ श्रेष्ठांबरोबर मेळ व दुष्टांशी पृथक भावाने वागतात ते अत्यंत बल प्राप्त करतात. ॥ ८ ॥